17 September,2023 khaturdwa festival
उत्तराखंड: उत्तरभारत के उत्तरी भाग में स्थित है और यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर समृद्ध है। खतड़ुवा पर्व, उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसे गर्व और उत्सव के साथ मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से खतड़ुवा गाँव में मनाया जाता है, जो कि उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है।
खतड़ुवा पर्व का आयोजन साल में एक बार होता है, और यह गर्मियों के मौसम में होता है, जब स्थानीय लोग अपनी पारंपरिक धार्मिक और सांस्कृतिक आधारों को मनाते हैं। इस पर्व का मुख्य उद्देश्य खतड़ुवा गाँव के ग्रामीणों की आत्मा में गर्माहट और उत्साह पैदा करना है।
पर्व का आयोजन धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा-पाठ, गीत-संगीत, नृत्य, और प्रदर्शनों के साथ होता है। गाँव के मंदिरों में पूजा अर्चना होती है और स्थानीय प्राचीन कथाओं का पाठ किया जाता है। खतड़ुवा के लोग अपनी परंपरागत वस्त्र पहनकर खास रूप से तैयारी करते हैं, और वे अपने गाँव के महत्वपूर्ण स्थलों पर यात्रा करते हैं।
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खतड़ुवा त्यौहार की शुभकामनायें देते समय यह गीत गा कर अपनों,मित्रों और जान पहचान वालों को शुभकामना दी जाती हैं
औन्सो ल्यूला, बेटुलो ल्युला,
गरगिलो ल्यूलो,
गाड़ गधेरान बे ल्यूलो
त्यार गुसे बची रो, तू बची रे।
एक गोरु बैटी गोठ भरी जो।
खतडुवा पर्व प्रत्येक वर्ष अश्विन संक्रांति को कुमाऊँ मंडल में मानते हैं। अश्विन मास में पहाड़ों में खेती के काम की भरमार पड़ी रहती है। खतड़ुवा के दिन सुबह साफ सफाई, देलि और कमरों की लिपाई की जाती है।
दिन में पूजा पाठ करके, पारम्परिक पहाड़ी व्यजंनों का आनंद लेते हैं। क्योंकि अश्विन में काम ज्यादा होने के कारण, घर के बड़े बुजुर्ग लोग काम में व्यस्त रहते हैं। और खतड़ुवा के डंक (डंडे जिनसे आग को पीटते हैं) बनाने और सजाने की जिम्मेदारी घर के बच्चों की होती है। घर में जितने आदमी होते हैं, उतने डंडे बनाए जाते हैं। उन डंडों को कांस की घास के साथ उसमें अलग-अलग फूलों से सजाते हैं। खतरूवा के डंडों के लिए, कास की घास और गुलपांग के फूल जरूरी माने जाते हैं।
महिलाएँ गाय के गोशाले को साफ करके वहाँ नरम नरम घास डालती हैं। और गायों को आशीर्वाद गीत गाकर खतड़ुवा की शुभकामनाएं देती हैं। खतड़वा, मनाने के लिए, चीड़ के लकड़ी की मशाल छिलुक जलाकर, खतड़वा के डंडों को गौशाले के अंदर से पशुओं के ऊपर से घुमा कर लाते हैं, और यह कामना की जाती है कि आने वाली शीत ऋतु हमारे पशुओं के लिए अच्छी रहे और वे रोग दोषों से मुक्त रहें।
फिर उन डंडों को लेकर और साथ में ककड़ी भी लेकर उस स्थान पर पहुँचा जाता है, जहाँ सुखी घास रखी होती है। उसके बाद सुखी घास में आग लगाकर उसे डंडों से पीटते हैं। और कुमाऊनी भाषा में खतरुआ पर गीत गाए जाते हैं:
“भैलो खतड़वा भैलो,
गाई की जीत खतड़वा की हार।
खतड़वा नैहगो धारों धार।
गाई बैठो स्यो। खतड़ु पड़ गो भ्यो।”
उसके बाद सभी सदस्य खतडुवा की आग को पैरों से फेरते हैं। क्योंकि कहा जाता है कि जो खतडुवा की आग से कूदकर या उसके ऊपर पैर घुमाकर फेरता है, उसे ठंड मौसम परेशान नहीं करता। खतड़वे की आग में से कुछ आग घर को लाई जाती है, और इसके पीछे यह कामना की नकारात्मक शक्तियों का विनाश और सकारात्मकता का विकास। उसके बाद पहाड़ी ककड़ी काटी जाती है। थोड़ी आग में चढ़ा कर बाकी ककड़ी आपस मे प्रसाद के रूप में बांट कर खाई जाती है। सबसे विशेष प्रसाद में कटी हुई पहाड़ी ककड़ी के बीजों का खतड़वा के दिन तिलक किया जाता है। अर्थात खतडुवा पर्व पर ककड़ी के बीजों को माथे पर लगाने की परम्परा होती है।