आज़ादी की मशाल लिए जो खड़ा था, वो आज़ाद
देशभक्तों की फौज लिए जो चला, वो था आजाद
न रुका, न थका, न डरा, ऐसा सुरमा था आजाद
हर बेंत के प्रहार पर, उदघोष के साथ उठा, वो था आजाद
मृत्यु में भी प्रण, फिर अमर, ऐसा ताडित है आजाद
काल जो अंग्रेजो का, देशभक्तों का आदर्श है आजाद
देश की आजादी और उसके लिए मर मिटने का जज्बा रखने वाले एक ऐसे ही देशभक्त चंद्रशेखर तिवारी जिन्हे आजाद के नाम से भी जाना जाता है. इनका आम आजाद कैसे पड़ा इसके पीछे एक घटना है, जिसने चंद्रशेखर के पूरे जीवन को बदल दिया और देश को ऐसा वीर सपूत दिया जिसके नाम मात्र से देशभक्तों के खून में उबाल आ जाता है. लेकिन देश के इस वीर सपूत के शहीद हो जाने के बाद जो हुआ वो बेहद ही मार्मिक और इस देश के लोग लोगों की बेबसी का पर्याय है. जिसकी बेड़ियां अंग्रेजी हुकूमत से जकड़ी हुई थी.
ऐसा क्या हुआ था?
आजाद के शहीद होने के खबर उनकी मां को कई महीने बाद मिली थी. वो पहले ही ऐसी दुख की घड़ी से गुजर रही थी उस पर से जब उन्हें यह पता चला कि उनका बेटा नहीं रहा तो वह पूरी तरह टूट गई. चंद्रशेखर के भाई की मौत पहले ही हो चुकी थी और आजाद की मौत के कुछ समय बाद ही इनके पिता का भी देहांत हो गया. जिसके बाद शहीद की माता को मुफलिसी में जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा. आजाद की माता लकड़ी बीन कर अपना गुजर- बसर करती थी. भूख लगने पर ज्वार-बाजरा का घोल बनाकर पीती थीं। इतना ही नही उनकी यह स्थिति देश को आजादी मिलने के 2 साल बाद (1949) तक जारी रही। जो कि बेहद शर्मसार करने वाली है.
आजाद की मां का ये हाल देख सदाशिव (आजाद के मित्र) उन्हें अपने साथ झांसी लेकर आ गए। मार्च 1951 में उनका निधन हो गया। सदाशिव ने खुद झांसी के बड़ागांव गेट के पास शमशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया था। घाट पर आज भी आजाद की मां जगरानी देवी की स्मारक बनी है।
कैसे पड़ा नाम?
जब 15 साल के आजाद को जज के सामने पेश किया गया तो उन्होंने कहा कि मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा पता जेल है, इससे जज भड़क गया और आजाद को 15 बेंतो की सजा सुनाई गई, यही से उनका नाम आजाद पड़ा. आपको बता दे जैसे-जैसे बेंत पड़ते थे , उनकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, फिर भी वह ‘भारत माता की जय!’ चिल्लाते थे. ये पहली और आखिरी बार था जब चंद्रशेखर अंग्रेजो की गिरफ्त में थे. इसके बाद चंद्रशेखर आजाद जीवित रहते हुए कभी अंग्रेजो की पकड़ में नही आये.
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में एक ब्राह्मण परिवार में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ था।[3][4] उनके पूर्वज ग्राम बदरका वर्तमान उन्नाव जिला (बैसवारा) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में बस गये।
भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी को आगे बढ़ाने में था अहम योगदान
चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था। इस काण्ड के फलस्वरूप क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए.
एच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फ़रवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और २० फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें! अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए। यह दुखद घटना २७ फ़रवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।